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साँझ के साँचे बोल तिहारे।
रजनी अनत जागे नंदनंदन आये निपट सवारे॥१॥
अति आतुर जु नीलपट ओढे पीरे बसन बिसारे।
कुंभनदास प्रभु गोवर्धनधर भले वचन प्रतिपारे॥२॥
भोग सरने के समय
आई ऋतु चहूँदिस फूले द्रुम कानन कोकिला समूह मिलि गावत वसंत हि।
मधुप गुंजारत मिलत सप्तसुर भयो है हुलास तन मन सब जंतहि॥१॥
मुदित रसिक जन उमगि भरे हैं नहिं पावत मन्मथ सुख अंतहि।
कुंभनदास स्वामिनी बेगि चलि यह समें मिलि गिरिधर नव कंतहि॥२॥
हमारो दान देहो गुजरेटी।
बहुत दिनन चोरी दधि बेच्यो आज अचानक भेटी॥१॥
अति सतरात कहा धों करेगी बडे गोप की बेटी।
कुंभनदास प्रभु गोवर्धनध्र भुज ओढनी लपेटी॥२॥
गाय सब गोवर्धन तें आईं।
बछरा चरावत श्री नंदनंदन, वेणु बजाय बुलाई॥१॥
घेरि न घिरत गोप बालक पें, अति आतुर व्हे धाई।
बाढी प्रीत मदन मोहन सों, दूध की नदी बहाई ॥२॥
निरख स्वरूप ब्रजराज कुंवर को, नयनन निरख निकाई ।
कुंभनदास प्रभु के सन्मुख, ठाडी भईं मानो चित्र लिखाई॥३॥
भक्त इच्छा पूरन श्री यमुने जु करता ।
बिना मांगे हु देत कहां लौ कहों हेत, जैसे काहु को कोऊ होय धरता ॥१॥
श्री यमुना पुलिन रास, ब्रज बधू लिये पास, मन्द मन्द हास कर मन जू हरता ।
कुम्भन दास लाल गिरिधरन मुख निरखत,यही जिय लेखत श्री यमुने जु भरता ॥२॥
श्री यमुने पर तन मन धन प्राण वारो ।
जाकी कीर्ति विशद कौन अब कहि सकै, ताहि नैनन तें न नेक टारों ॥१॥
चरण कमल इनके जु चिन्तत रहों, निशदिनां नाम मुख तें उचारो ।
कुम्भनदास कहे लाल गिरिधरन मुख इनकी कृपा भई तब निहारो ॥२॥
श्री यमुने अगनित गुन गिने न जाई ।
श्री यमुने तट रेणु ते होत है नवीन तनु, इनके सुख देन की कहा करो बडाई ॥१॥
भक्त मांगत जोई देत तिहीं छिनु सो ऐसी को करे प्रण निभाई ।
कुम्भन दास लाल गिरिधरन मुख निरखत, कहो कैसे करि मन अघाई ॥२॥
श्री यमुने रस खान को शीश नांऊ।
ऐसी महिमा जानि भक्त को सुख दान, जोइ मांगो सोइ जु पाऊं ॥१॥
पतित पावन करन नामलीने तरन, दृढ कर गहि चरन कहूं न जाऊं ।
कुम्भन दास लाल गिरिधरन मुख निरखत यहि चाहत नहिं पलक लाऊं ॥२॥
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