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प्रात समय नवकुंज महल में श्री राधा और नंदकिशोर ॥
दक्षिणकर मुक्ता श्यामा के तजत हंस अरु चिगत चकोर ॥१॥
तापर एक अधिक छबि उपजत ऊपर भ्रमर करत घनघोर ॥
सूरदास प्रभु अति सकुचाने रविशशि प्रकटत एकहि ठोर ॥२॥

औरन सों खेले धमार श्याम मोंसों मुख हू न बोले।
नंदमहर को लाडिलो मोसो ऐंठ्यो ही डोले॥१॥

राधा जू पनिया निकसी वाको घूंघट खोले।
’सूरदास’ प्रभु सांवरो हियरा बिच डोले॥२॥

जागिये ब्रजराज कुंवर कमल कोश फूले।

कुमुदिनी जिय सकुच रही, भृंगलता झूले॥१॥

तमचर खग रोर करत, बोलत बन मांहि।

रांभत गऊ मधुर नाद, बच्छन हित धाई॥२॥

विधु मलीन रवि प्रकास गावत व्रजनारी।

’सूर’ श्री गोपाल उठे आनन्द मंगलकारी॥३॥

 

ऐसो पूत देवकी जायो।
चारों भुजा चार आयुध धरि, कंस निकंदन आयो ॥१॥

भरि भादों अधरात अष्टमी, देवकी कंत जगायो।
देख्यो मुख वसुदेव कुंवर को, फूल्यो अंग न समायो॥२॥

अब ले जाहु बेगि याहि गोकुलबहोत भाँति समझायो।
हृदय लगाय चूमि मुख हरि को पलना में पोढायो॥३॥

तब वसुदेव लियो कर पलना अपने सीस चढायो।
तारे खुले पहरुवा सोये जाग्यो कोऊ न जगायो॥४॥

आगे सिंह सेस ता पाछे नीर नासिका आयों।
हूँक देत बलि मारग दीनो, नन्द भवन में आयो॥५॥

नन्द यसोदा सुनो बिनती सुत जिनि करो परायो।
जसुमति कह्यो जाउ घर अपने कन्या ले घर आयो॥६॥

प्रात भयो भगिनी के मंदिर प्रोहित कंस पठायो।
कन्या भई कूखि देवकी के सखियन सब्द सुनायो॥७॥

कन्या नाम सुनो जब राजा, पापी मन पछतायो।
करो उपाय कंस मन कोप्यो राज बहोत सिरायो॥८॥

कन्या मगाय लई राजा ने धोबी पटकन आयो।
भुजा उखारि ले गई उर ते राजा मन बिलखायो॥९॥

वेदहु कह्यो स्मृति हू भाख्यो सो डर मन में आयो।
’सूर’ के प्रभु गोकुल प्रगटे भयो भक्तन मन भायो॥१०॥

चिरजीयो होरी को रसिया चिरजीयो।
ज्यों लो सूरज चन्द्र उगे है, तो लों ब्रज में तुम बसिया चिरजीयो ॥१॥
नित नित आओ होरी खेलन को, नित नित गारी नित हँसिया चिरजीयो॥२॥
सूरदास प्रभु तिहारे मिलन को, पीत पिछोरी कटि कसिया चिरजीयो ॥३॥

शयन भोग के समय
राधे जू आज बन्यो है वसंत।
मानो मदन विनोद विहरत नागरी नव कंत॥१॥

मिलत सन्मुख पाटली पट मत्त मान जुही।
बेली प्रथम समागम कारन मेदिनी कच गुही॥२॥

केतकी कुच कमल कंचन गरे कंचुकी कसी।
मालती मद विसद लोचन निरखि मुख मृदु हसी॥३॥

विरह व्याकुल कमलिनी कुल भई बदन विकास।
पवन पसरत सहचरी पिक गान हृदय विलास॥४॥

उत सखी चम्पक चतुर अति कदम नौतन माल।
मधुप मनिमाला मनोहर सूर श्री गोपाल॥५॥

मलार मठा खींच को लोंदा।
जेवत नंद अरु जसुमति प्यारो जिमावत निरखत कोदा॥
माखन वरा छाछ के लीजे खीचरी मिलाय संग भोजन कीजे॥
सखन सहित मिल जावो वन को पाछे खेल गेंद की कीजे॥
सूरदास अचवन बीरी ले पाछे खेलन को चित दीजे॥

ग्वालिन मेरी गेंद चुराई।
खेलत आन परी पलका पर अंगिया मांझ दुराई॥१॥

भुज पकरत मेरी अंगिया टटोवत छुवत छंतिया पराई।
सूरदास मोही एही अचंबो एक गई द्वय पाई॥२॥

देखोरि हरि भोजन खात।
सहस्त्र भुजा धर इत जेमत हे दूत गोपन से करत हे बात॥१॥

ललिता कहत देख हो राधा जो तेरे मन बात समात।
धन्य सबे गोकुल के वासी संग रहत गोकुल के तात॥२॥

जेंमत देख मंद सुख दीनो अति आनंद गोकुल के नर नारी।
सूरदास स्वामी सुखसागर गुण आगर नागर दे तारी॥३॥

अरी तुम कोन हो री बन में फूलवा बीनन हारी।
रतन जटित हो बन्यो बगीचा फूल रही फुलवारी॥१॥

कृष्णचंद बनवारी आये मुख क्यों न बोलत सुकुमारी।
तुम तो नंद महर के ढोटा हम वृषभान दुलारी॥२॥

या बन में हम सदा बसत हैं हमही करत रखवारी।
बीन बूझे बीनत फूलवा जोबन मद मतवारी॥३॥

तब ललिता एक मतो उपाय सेन बताई प्यारी।
सूरदास प्रभु रसबस कीने विरह वेदना टारी॥४।

राधा प्यारी कह्यो सखिन सों सांझी धरोरी माई।
बिटियां बहुत अहीरन की मिल गई जहां फूलन अथांई॥१॥

यह बात जानी मनमोहन कह्यो सबन समुझाय।
भैया बछरा देखे रहियो मैया छाक धराय॥२॥

असें कहि चले श्यामसुंदरवर पोहोंचे जहां सब आई।
सखी रूप व्हे मिलें लाडिले फूल लिये हरखाई॥३॥

करसों कर राधा संग शोभित सांझी चीती जाय।
खटरस के व्यंजन अरपे तब  मन अभिलाख पुजाय॥४॥

कीरति रानी लेत बलैया विधिसों विनय सुनाय।
सूरदास अविचल यह जोरी सुख निरखत न अघाय॥५॥

मोहन केसे हो तुम दानी।
सूधे रहो गहो अपनी पति तुमारे जिय की जानी॥१॥

हम गूजरि गमारि नारि हे तुम हो सारंगपानी।
मटुकी लई उतारि सीसते सुंदर अधिक लजानी ॥२॥

कर गहि चीर कहा खेंचत हो बोलत चतुर सयानि।
सूरदास प्रभु माखन के मिस प्रेम प्रीति चित ठानी॥३॥

व्रजमंडल आनंद भयो प्रगटे श्री मोहन लाल।
ब्रज सुंदरि चलि भेंट लें हाथन कंचन थार॥१॥

जाय जुरि नंदराय के बंदनवार बंधाय।
कुंकुम के दिये साथीये सो हरि मंगल गाय॥२॥

कान्ह कुंवर देखन चले हरखित होत अपार।
देख देख व्रज सुंदर अपनों तन मन वार॥३॥

जसुमति लेत बुलाय के अंबर दिये पहराय।
आभूषण बहु भांति के दिये सबन मनभाय॥४॥

दे आशीष घर को चली, चिरजियो कुंवर कन्हाई।
सूर श्याम विनती करी, नंदराय मन भाय॥५॥

रानी तेरो चिरजीयो गोपाल ।
बेगिबडो बढि होय विरध लट, महरि मनोहर बाल॥१॥

उपजि पर्यो यह कूंखि भाग्य बल, समुद्र सीप जैसे लाल।
सब गोकुल के प्राण जीवन धन, बैरिन के उरसाल॥२॥

सूर कितो जिय सुख पावत हैं, निरखत श्याम तमाल।
रज आरज लागो मेरी अंखियन, रोग दोष जंजाल॥३।

राखी बांधत जसोदा मैया ।
विविध सिंगार किये पटभूषण, पुनि पुनि लेत बलैया ॥१॥

हाथन लीये थार मुदित मन, कुमकुम अक्षत मांझ धरैया।
तिलक करत आरती उतारत अति हरख हरख मन भैया ॥२॥

बदन चूमि चुचकारत अतिहि भरि भरि धरे पकवान मिठैया ।
नाना भांत भोग आगे धर, कहत लेहु दोउ मैया॥३॥

नरनारी सब आय मिली तहां निरखत नंद ललैया ।
सूरदास गिरिधर चिर जीयो गोकुल बजत बधैया ॥४॥

पवित्रा पहरत हे अनगिनती।
श्री वल्लभ के सन्मुख बैठे बेटा नाती पंती॥१॥

बीरा दे मुसिक्यात जात प्रभु बात बनावत बनती।
वृंदावन सुख पाय व्रजवधु चिरजीयो जियो भनती॥२॥

पवित्रा श्री विट्ठलेश पहरावे।
व्रज नरेश गिरिधरन चंद्र को निरख निरख सचु पावे॥१॥

आसपास युवतिजन ठाडी हरखित मंगल गावे।
गोविंद प्रभु पर सकल देवता कुसुमांजलि बरखावे ॥२॥

पवित्रा पहरे को दिन आयो।
केसर कुमकुम रसरंग वागो कुंदन हार बनायो॥१॥

जय जयकार होत वसुधा पर सुर मुनि मंगल गायो।
पतित पवित्र किये सुख सागर सूरदास यश गायो॥२॥

पहरे पवित्रा बैठे हिंडोरे दोऊ निरखत नेन सिराने।
नव कुंज महल में राजत कोटिक काम लजाने ॥१॥

हास विलास हरत सबकेअन अंग अंग सुख साने ।
परमानंद स्वामी मन मोहन उपजत तान बिताने ॥२॥

हों तो एक नई बात सुन आई।

महरि जसोदा ढोटा जायो, आंगन बजत बधाई ॥१॥

कहिये कहा कहत नहि आवे रतन भूमि छबि छाई ।

नाचर बिरध तरुण अरु बालक गोरस कीच मचाई ॥२॥

द्वारें भीतर गोप ग्वालन की वरनों कहा बढाई ।

सूरदास प्रभु अंतरयामी, नंदसुवन सुखदाई ॥३॥

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