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गोवर्धन गिरिसघनकंदरा रैन निवास कियो पिय प्यारी ॥
उठ चले भोर सुरत रस भीने नंदनंदन वृषभान दुलारी ॥१॥
इत विगलित कच माल मरगजी अटपटे भूषण रागमणी सारी ॥
उतहि अधरमिस पाग रहिथस दुहूदिश छबि बाढी अति भारी ॥२॥
घूमत आवत रति रणजीते करिणिसंग गजवर गिरिवरधारी ॥
चतुर्भुजदास निरख दंपतिसुख तनमनधन कीनो बलिहारी ॥३॥
रत्न जटित कनक थाल मध्य सोहे दीप माल अगर आदि चंदन सों अति सुगंध मिलाई ॥
घनन घनन घंटा घोर झनन झनन झालर झकोर ततथेई ततथेई बोले सब ब्रज की नारी सुहाई ॥१॥
तनन तनन तान मान राग रंग स्वर बंधान गोपी सब गावत हैं मंगल बधाई॥
चतुर्भुज गिरिधरन लाल आरती बनी रसाल तनमनधन वारत हैं जसोमति नंदराई ॥२॥
राग विभास
भोर भये जसोदा जू बोलैं जागो मेरे गिरिधर लाल।
रतन जटित सिंहासन बैठो, देखन कों आई ब्रजबाल॥१॥
नियरैं आय सुपेती खैंचत, बहुर्यो ढांपत हरि वदन रसाल।
दूध दही माखन बहु मेवा, भामिनी भरि भरि लाई थाल॥२॥
तब हरखित उठि गादी बैठे, करत कलेऊ, तिलक दे भाल।
दै बीरा आरती उतारत,’चत्रभुज’ गावें गीत रसाल॥३॥
दान मांगत ही में आनि कछु कीयो।
धाय लई मटुकिया आय कर सीसतें रसिकवर नंदसुत रंच दधि पीयो॥१॥
छूटि गयो झगरो हँसे मंद मुसिक्यानि में तबही कर कमलसों परसि मेरो हियो।
चतुर्भुजदास नयननसो नयना मिले तबही गिरिराजधर चोरि चित्त लियो॥२॥
रावल के कहे गोप आज व्रजधुनि ओप कान देदे सुनों बाजे गोकुल मंदिलरा।
जसोदा के पुत्र भयो वृषभानजूसो कह्यो गोपी ग्वाल ले ले धाये दूध दधि गगरा॥१॥
आगे गोपवृंद वर पाछे त्रिया मनोहर चलि न सकत कोऊ पावत न डगरा।
चतुर्भुज प्रभु गिरिधर को जनम सुनि फूल्यो फूल्यो फिरत हे नादे जेसें भंवरा॥२॥
श्री गोवर्धन वासी सांवरे लाल तुम बिन रह्यो न जाय हो॥ बृजराज लडेतोलाडिले॥
बंक चिते मुसकाय के लाल सुंदर वदन दिखाय ॥
लोचन तल पे मीन ज्यों लाल, पलछिन कल्प बिहाय हो ॥१॥
सप्त स्वर बंधान सों लाल, मोहन वेणु बजाय ॥
सुरत सुहाइ बांधिके नेक, मधुरे मधुर स्वर गाय हो ॥२॥
रसिक रसीली बोलनी लाल, गिरि चढि गैयां बुलाय ॥
गांग बुलाइ धूमरी नेंक, ऊँची टेर सुनाय हो ॥३॥
दृष्टि परी जा दिवसतें लाल, तबते रुचे नहिं आन ॥
रजनी नींद न आवही मोहे, बिसर्यो भोजन पान हो ॥४॥
दर्शन को यनुमा तपे लाल बचन सुनन को कान हो ।
मिलिवे को हीयरो तपे मेरे जिय के जीवन प्राण हों ॥५॥
मन अभिलाषा ह्वे रही लाल, लगत नयन निमेष ॥
एकटक देखूं आवतो प्यारो, नागर नटवर भेष हों ॥६॥
पूर्ण शशि मुख देख के लाल, चित चोट्यो बाही ठोर ॥
रूप सुधारस पान के लाल, सादर चंद्र चकोर हो ॥७॥
लोक लाज कुल वेद की लाल, छांड्यो सकल विवेक ॥
कमल कली रवि ज्यों बढे लाल, क्षणु क्षणु प्रीति विशेष हो ॥८॥
मन्मथ कोटिक वारने लाल, देखी डगमग चाल ॥
युवती जन मन फंदना लाल, अंबुज नयन विशाल ॥९॥
यह रट लागी लाडिले लाल, जैसे चातक मोर ॥
प्रेम नीर वर्षाय के लाल नवघन नंदकिशोर हो ॥१०॥
कुंज भवन क्रीडा करे लाल, सुखनिधि मदन गोपाल ॥
हम श्री वृंदावन मालती लाल, तुम भोगी भ्रमर भूपाल हो ॥११॥
युग युग अविचल राखिये लाल, यह सुख शैल निवास ॥
श्री गोवर्धनधर रूप पें बलजाय चतुर्भुज दास ॥१२॥
श्री गोवर्धनवासी सांवरे लाल तुम बिन रह्यो न जाये । हों ब्रजराज लडे तें लाडिले ॥
बंकचिते मुसकाय के लाल सुंदर वदन दिखाय ।
लोचन तलफें मीन ज्यों लाल पलछिन कल्प विहाय ॥१॥
सप्तक स्वर बंधान सों लाल मोहन वेणु बजाय ।
सुरत सुहाई बांधि के लाल मधुरे मधुर गाय ॥२॥
रसिक रसिक रसीली बोलनी लाल गिरि चढ गैया बुलाय ।
गांग बुलाई धूमरी लाल ऊंची टेर सुनाय ॥३॥
दृष्टि परी जा दिवस तें लाल तबतें रुचे नही आन ।
रजनी नींद न आवही मोहि विसर्यो भोजन पान ॥४॥
दरसन को नयना तपें लाल वचनन को सुन कान ।
मिलवे को हियरा तपे मेरे जिय के जीवन प्रान ॥५॥
मन अभिलाखा व्हे रही लाल लागत नयन निमेष ।
इक टक देखु आवते प्यारो नागर नटवर भेष ॥६॥
पूरण शशि मुख देख के लाल चित चोट्यो वाहि ओर ।
रूप सुधारस पान के लाल सादर कुमुद चकोर ॥७॥
लोक लाज कुळ वेद की छांड्यो सकल विवेक ।
लहल कली रवि ज्यों बढे लाल छिन छिन प्रति विशेष ॥८॥
मन्मथ कोटिक वारने लाल निरखत डगमगी चाल ।
युवति जन मन फंदना लाल अंबुज नयन विशाल ॥९॥
यह रट लागी लाडिये लाल जैसे चातक मोर ।
प्रेमनीर वरखा करो लाल नव घन नंद किशोर ॥१०॥
कुंज भवन क्रीडा करो लाल सुखनिधि मदन गोपाल ।
हम श्री वृंदावन मालती तुम भोगी भ्रमर भूपाल ॥११॥
युग युग अविचल राखिये लाल यह सुख शैल निवास ।
श्री गोवर्धनधर रूप पर बलिहारी चतुर्भुज दास ॥१२॥
बैठे लाल फूलन की चौखंडी ।
चंपक बकुल गुलाब निवारो रायवेलि श्री खंडी ॥१॥
जाई जुई केवरो कुंजो कनक कणेर सुरंगी ।
चतुर्भुज प्रभु गिरिधर जु की बानिक दिन दिन नव नवरंगी ॥२॥
फूलन की मंडली मनोहर बैठे जहाँ रसिक पिय प्यारी ।
फूलन के बागे और भूषण फूलन की पाग संवारी ॥१॥
ढिंग फूली वृषभान नंदिनी तैसिये फूल रही उजियारी ।
फूलन के झूमका झरोखा बहु फूलन की रची अटारी ॥२॥
फूले सखा चकोर निहारत बीच चंद मिल किरण संवारी ।
चतुर्भुज दास मुदित सहचारी फूले लाल गोवर्धन धारी ॥३॥
मनमोहन अद्भुत डोल बनी ।
तुम झूलो हों हरख झुलाऊं वृंदावन चंदधनी ॥१॥
परम विचित्र रच्यो विश्वकर्मा हीरा लाल मणी ।
चतुर्भुज प्रभु गिरिधरन लाल छबि कापें जात गनी ॥२॥
हेत करि देत श्री यमुने वास कुंजे ।
जहाँ निसवासर रास में रसिकवर, कहां लों वरनिये प्रेमपुंजे ॥१॥
थकित सरिता नीर थकित ब्रजबधू भीर, कोउ न धरत धीर मुरली सुनीजे ।
चतुर्भुजदास यमुने पंकज जानि, मधुप की नामी चित्त लाय गुंजे ॥२॥
वारंवार श्रीयमुने गुणगान कीजे ।
एहि रसनातें भजो नामरस अमृत भाग्य जाके हैं सोई जु पीजे ॥१॥
भानु तनया दया अति ही करुणामया इनहीं की कर आस अब सदाई जीजे ।
चतुर्भुजदास कहे सोई प्रभु पास रहे जोइ श्री यमुनाजी के रस जु भीजे ॥२॥
प्राणपति विहरत श्री यमुना कूले ।
लुब्ध मकरंद के भ्रमर ज्यों बस भये, देखि रवि उदय मानो कमल फूले ॥१॥
करत गुंजार मुरली जु ले सांवरो, सुनत ब्रजवधू तन सुधि जु भूले ।
चतुर्भुज दास श्री यमुने प्रेमसिंधु में लाल गिरिधरनवर हरखि झूले ॥२॥
चित्त में श्री यमुना, निशिदिन जु राखो ।
भक्त के वश कृपा करत हें सर्वदा ऐसो श्री यमुना जी को हे जु साखो ॥१॥
जा मुख ते श्री यमुने यह नाम आवे, संग कीजे अब जाय ताको ।
चतुर्भुज दास अब कहत हैं सबन सों, तातें श्री यमुने यमुने जु भाखो ॥२॥
महामहोत्सव श्री गोकुल गाम ।
प्रेम मुदित युवती जस गावत श्याम सुन्दर को ले ले नाम ॥
जहाँ तहाँ लीला अवगाहत खरिक खोर दधि मंथन ठाम ।
करत कुलाहल निस और वासर आंनंद में बीतत सब याम ॥
नंद गोप सुत सब सुख दायक मोहन मूरति पूरन काम ।
‘चतुर्भुज’ प्रभु गिरधर आनंद मेरे सखि स्वरूप सोभा अभिराम ॥
मैया मोहि माख्नन मिसरी भावे ।
मीठो दधि मिठाई मधुघृत, अपने कर सों क्यों न खवावे ॥१॥
कनक दोहनी दे कर मेरे, गो दोहन क्यों न सिखावे ।
ओट्यो दूध धेनु धोरी को, भर के कटोरा क्यों न पिवावे ॥२॥
अजहु ब्याह करत नही मेरो, तोहे नींद क्यों आवे ।
‘चतुर्भुज’ प्रभु गिरिधर की बतियाँ, सुन ले उछंग पय पान करावें ॥३॥
मंगल आरती गोपाल की ।
नित प्रति मंगल होत निरख मुख, चितवन नयन विशाल की ॥
मंगल रूप श्याम सुंदर को, मंगल छवि भृकुटि सुभाल की ।
चतुर्भुज प्रभु सदा मंगल निधि बानिक गिरिधर लाल की ॥
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