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देखो माई हरियारो सावन आयो।
हर्यो टिपारो शीश विराजत काछ हरी मन भायो॥१॥

हरी मुरली हे हरि संग राधे, हरी भूमि सुखदाई।
हरी हरी वन राजत द्रुमवेली नृत्यत कुंवर कन्हाई॥२॥

हरी हरी सारी, सखीजन पहेरें, चोली हरी रंग भीनी।
रसिक प्रीतम मन हरित भयो हे, सर्वस्व नौछावर कीनो॥३॥

बोले माई गोवर्धन पर मुरवा ।
तेसी ये श्यामघन मुरली बजाई, तेसेई उठे झुमधुरवा ॥१॥
बडी बडी बूंदन वरषन लाग्यो, पवन चलत अति झुरवा।
सूरदास प्रभु तुम्हारे मिलन को निश जागत भयो भुरवा ॥२॥

भोग श्रृंगार यशोदा मैया,श्री विट्ठलनाथ के हाथ को भावें ।
नीके न्हवाय श्रृंगार करत हैं, आछी रुचि सों मोही पाग बंधावें ॥

तातें सदा हों उहां ही रहत हो, तू दधि माखन दूध छिपावें ।
छीतस्वामी गिरिधरन श्री विट्ठल, निरख नयन त्रय ताप नसावें ॥

नंद भवन को भूषण माई ।

यशुदा को लाल, वीर हलधर को, राधारमण सदा सुखदाई ॥

इंद्र को इंद्र, देव देवन को, ब्रह्म को ब्रह्म, महा बलदाई ।

काल को काल, ईश ईशन को, वरुण को वरुण, महा बलजाई ॥

शिव को धन, संतन को सरबस, महिमा वेद पुराणन गाई ।

‘नंददास’ को जीवन गिरिधर, गोकुल मंडन कुंवर कन्हाई ॥

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