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जय जय श्री सूरजा कलिन्द नन्दिनी।
गुल्मलता तरु सुवास कुंद कुसुम मोद मत्त, गुंजत अलि सुभग पुलिन वायु मंदिनी॥१॥
हरि समान धर्मसील कान्ति सजम जलद नील, कटिअ नितंब भेदत नित गति उत्तंगिनी।
सिक्ता जनु मुक्ता फल कंकन युत भुज तरंग कमलन उपहार लेत पिय चरन वंदिनी॥२॥
श्री गोपेन्द्र गोपी संग श्रम जल कन सिक्त अंग अति तरंगिनी रसिक सुर सुफंदिनी।
छीतस्वामी गिरिवरधर नन्द नन्दन आनन्द कन्द यमुने जन दुरित हरन दुःख निकंदिनी ॥३॥
गोवर्धन की सिखर चारु पर फूली नव मधुरी जाय।
मुकुलित फलदल सघन मंजरी सुमन सुसोभित बहुत भाय॥१॥
कुसुमित कुंज पुंज द्रुम बेली निर्झर झरत अनेक ठांय।
छीतस्वामी ब्रजयुवतीयूथ में विहरत हैं गोकुल के राय॥२॥
(उत्सव भोग आये तब)
लाल ललित ललितादिक संग लिये बिहरत वर वसन्त ऋतु कला सुजान।
फूलन की कर गेंदुक लिये पटकत पट उरज छिये हसत लसत हिलि मिलि सब सकल गुन निधान॥१॥
खेलत अति रस जो रह्यो रसना नहिं जात कह्यो निरखि परखि थकित भये सघन गगन जान।
छित स्वामी गिरिवरधर विट्ठल पद पद्म रेनु वर प्रताप महिमा ते कियो कीरति गान॥२॥
बादर झूम झूम बरसन लागे ।
दामिनि दमकत चोंक चमक श्याम घन की गरज सुन जागे ॥१॥
गोपी जन द्वारे ठाडी नारी नर भींजत मुख देखन कारन अनुरागे ।
छीतस्वामी गिरधरन श्री विट्ठल ओतप्रोत रस पागे ॥२॥
हमारे श्री विट्ठल नाथ धनी ।
भव सागर ते काढे कृपानिधी राखे शरन अपनी ॥१॥
रसना रटत रहत निशिवासर शेष सहस्त्र फनी ।
छीतस्वामी गिरिधरन श्री विट्ठल त्रिभुवन मुकुट मनी ॥२॥
गुण अपार मुख एक कहाँ लों कहिये ।
तजो साधन भजो नाम श्री यमुना जी को लाल गिरिधरन वर तबहि पैये ॥१॥
परम पुनीत प्रीति की रीति सब जानिके दृढकरि चरण कमल जु गहिये ।
छीतस्वामी गिरिधरन श्री विट्ठल , ऐसी निधि छांडि अब कहाँ जु जैये ॥२॥
धन्य श्री यमुने निधि देनहारी ।
करत गुणगान अज्ञान अध दूरि करि, जाय मिलवत पिय प्राणप्यारी ॥१॥
जिन कोउ सन्देह करो बात चित्त में धरो, पुष्टिपथ अनुसरो सुखजु कारी ।
प्रेम के पुंज में रासरस कुंज में, ताही राखत रसरंग भारी ॥२॥
श्री यमुने अरु प्राणपति प्राण अरु प्राणसुत, चहुजन जीव पर दया विचारी ।
छीतस्वामी गिरिधरन श्री विट्ठल प्रीत के लिये अब संग धारी ॥३॥
जा मुख तें श्री यमुने यह नाम आवे ।
तापर कृपा करत श्री वल्लभ प्रभु, सोई श्री यमुना जी को भेद पावे ॥१॥
तन मन धन सब लाल गिरिधरन को देकें, चरन जब चित्त लावे ।
छीतस्वामी गिरिधरन श्री विट्ठल, नैनन प्रकट लीला दिखावे ॥२॥
धाय के जाय जो श्री यमुना तीरे ।
ताकी महिमा अब कहां लग वरनिये, जाय परसत अंग प्रेम नीरे ॥१॥
निश दिना केलि करत मनमोहन, पिया संग भक्तन की हे जु भीरे ।
छीतस्वामी गिरिधरन श्री विट्ठल, इन बिना नेंक नहिं धरत धीरे ॥२॥
भोग श्रृंगार यशोदा मैया,श्री विट्ठलनाथ के हाथ को भावें ।
नीके न्हवाय श्रृंगार करत हैं, आछी रुचि सों मोही पाग बंधावें ॥
तातें सदा हों उहां ही रहत हो, तू दधि माखन दूध छिपावें ।
छीतस्वामी गिरिधरन श्री विट्ठल, निरख नयन त्रय ताप नसावें ॥
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