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शरण प्रतिपाल गोपाल रति वर्धिनी ।
देत पिय पंथ कंथ सन्मुख करत , अतुल करुणामयी नाथ अंग अर्द्धिनी ॥१॥
दीन जन जान रसपुंज कुंजेश्वरी रमत रसरास पिय संग निश शर्दनी ।
भक्ति दायक सकल भव सिंधु तारिनी करत विध्वंसजन अखिल अघमर्दनी ॥२॥
रहत नन्दसूनु तट निकट निसि दिन सदा गोप गोपी रमत मध्य रस कन्दनी ।
कृष्ण तन वर्ण गुण धर्म श्री कृष्ण की कृष्ण लीलामयी कृष्ण सुख कंदनी ॥३॥
पद्मजा पाय तू संगही मुररिपु सकल सामर्थ्य मयी पाप की खंडनी ।
कृपा रस पूर्ण वैकुण्ठ पद की सीढी जगत विख्यात शिव शेष सिर मंडनी ॥४॥
पर्योपद कमल तर और सब छांडि के देख दृग कर दया हास्य मुख मन्दनी ।
उभय कर जोर कृष्णदास विनती करें करो अब कॄपा कलिन्द गिरि नन्दिनी ॥५॥

श्री यमुने सुखकारनी प्राण प्रतिके ।
जिन्हे भूलि जात पिय सुधि करि देत, कहाँ लों कहिये इनके जु हित के ॥१॥

पिय संग गान करे उमंगी जो रस भरे, देत तारी कर लेत झटके ।
दास परमानन्द पाये अब ब्रजचन्द अहि जानत सब प्रेम गति के ॥२॥

श्री यमुने पिय को बस तुमजु कीने ।
प्रेम के फंद ते गहिजु राखे निकट ऐसे निर्मोल नग मोल लीने ॥१॥

तुमजु पठावत तहां अब धावत सदा, तिहारे रसरंग में रहत भीने ।
दास परमानन्द पाये अब ब्रजचन्द, परम उदार श्री यमुने जु दान दीने ॥२॥

श्री यमुने के साथ अब फ़िरत है नाथ ।
भक्त के मन के मनोरथ पूरन करत , कहां लो कहिये इनकी जु गाथ ॥१॥

विविध सिंगार आभूषन पहरे, अंग अंग शोभा वरनी न जात ।
दास परमानन्द पाये अब ब्रजचन्द राखे अपने शरण बहे जु जात ॥२॥

श्री यमुने की आस अब करत है दास ।
मन कर्म बचन जोरिके मांगत, निशदिन रखिये अपने जु पास ॥१॥

जहाँ पिय रसिकवर रसिकनी राधिका दोउ जन संग मिलि करत है रास।
दास परमानंद पाय अब ब्रजचन्द देखी सिराने नेन मन्दहास ॥२॥

श्री यमुना को नाम तेईजू लेहे ।
जाकी लगन लगी नंदलाल सों सर्वस्व देके निकट रहे हैं ॥१॥

जिनही सुगम जानि बात मन में जु मानि, बिना पहिचान कैसे जु पैये ।
कृष्णदासनि कहे श्री यमुने नाम नौका , भक्त भवसिंधु तें योंहि तरिये ॥२॥

श्री यमुने के नाम अघ दूर भाजे ।
जिनके गुन सुनन को लाल गिरिधरन पिय, आय सन्मुख ताके विराजे ॥१॥

तिहिं छिनु काज ताके सगरे सरें जायके मिलत ब्रजवधू समाजे ।
कृष्णदासनि कहे ताहि अब कौन डर, जाके ऊपर श्री यमुने सी गाजे ॥२॥

३४.
ऐसी कृपा कीजिये लोजिये नाम ।
श्री यमुने जग वन्दिनी गुण न जात काहु गिनी, जिनके ऐसे धनी सुन्दर श्याम ॥१॥।

देत संयोग रस ऐसे पियु हैजु बस, सुनत तिहारो सुजस पूरे सब काम ।
कृष्णदासनि कहे भक्त हित कारने श्री यमुने एक छिन नहिं करे विश्राम ॥२॥

श्री यमुने तुमसी एक हो जु तुमहीं ।
करि कृपा दरस निसवासर दीजिये, तिहारे गुनगान को रहत उद्यम ही ॥१॥

तिहारे पाये ते सकल निधि पावहीं, चरण्कमल चित्त भ्रमर भ्रमहीं ।
कृष्णदासनि कहें कौन यह तप कियो, तिहारे ढंग रहत है लता द्रुम ही ॥२॥

कौन पे जात श्री यमुने जु बरनी ।
सबही को मन मोहत मोहत मोहन , सो पिया को मन है जु हरनी ॥१॥

इन बिना एक छिन रहत नही जीवन धन, ब्रज चन्द मन आनन्द करनी ।
श्री विट्ठल गिरिधरन संग आये, भक्त के हेत अवतार धरनी ॥२॥

श्री यमुना जी को नाम ले सोई सुभागी ।
इनके स्वरूप को सदा चिन्तन करतम कल न परत जाय नेह लागी ॥१॥

पुष्टि मारग धरम अति दुर्लभ करम छोड सगरे परम प्रेम पागी।
श्री विट्ठल गिरिधरन ऐसी निधि, भक्त को देत है बिना माँगी ॥२॥

भक्त प्रतिपाल जंजाल टारे ।
अपने रस रंग मे संग राखत सदा,सर्वदा जोइ श्री यमुने नाम उच्चारे ॥१॥

इनकी कृपा अब कहाँ लग बरनिये, जैसे राखत जननी पुत्र बारे ।
श्री विट्ठल गिरिधरन संग विहरत, भक्त को एक छन ना बिसारे ॥२॥

रास रससागर श्री यमुने जु जानी ।
बहत धारा तन प्रतिछन नूतन, राखत अपने उर मां जु ठानी ॥१॥

भक्त को सहि भार हेतु जो प्रान आधार, अति हि बोलत मधुर मधुर बानी ।
श्री विट्ठल गिरिधरन बस किये, कौन पें जात महिमा बखानी ॥२॥

भक्त इच्छा पूरन श्री यमुने जु करता ।
बिना मांगे हु देत कहां लौ कहों हेत, जैसे काहु को कोऊ होय धरता ॥१॥

श्री यमुना पुलिन रास, ब्रज बधू लिये पास, मन्द मन्द हास कर मन जू हरता ।
कुम्भन दास लाल गिरिधरन मुख निरखत,यही जिय लेखत श्री यमुने जु भरता ॥२॥

श्री यमुने पर तन मन धन प्राण वारो ।
जाकी कीर्ति विशद कौन अब कहि सकै, ताहि नैनन तें न नेक टारों ॥१॥

चरण कमल इनके जु चिन्तत रहों, निशदिनां नाम मुख तें उचारो ।
कुम्भनदास कहे लाल गिरिधरन मुख इनकी कृपा भई तब निहारो ॥२॥

श्री यमुने अगनित गुन गिने न जाई ।
श्री यमुने तट रेणु ते होत है नवीन तनु, इनके सुख देन की कहा करो बडाई ॥१॥

भक्त मांगत जोई देत तिहीं छिनु सो ऐसी को करे प्रण निभाई ।
कुम्भन दास लाल गिरिधरन मुख निरखत, कहो कैसे करि मन अघाई ॥२॥

श्री यमुने रस खान को शीश नांऊ।
ऐसी महिमा जानि भक्त को सुख दान, जोइ मांगो सोइ जु पाऊं ॥१॥

पतित पावन करन नामलीने तरन, दृढ कर गहि चरन कहूं न जाऊं ।
कुम्भन दास लाल गिरिधरन मुख निरखत यहि चाहत नहिं पलक लाऊं ॥२॥

श्री यमुने पति दास के चिन्ह न्यारे ।
भगवदी को भगवत संग मिलि रहत हैं, जाके हिय बसत प्राण प्यारे ॥१॥

गूढ यमुने बात सोई अब जानही, जाके मनमोहन नैनतारे ।
सूर सुख सार निरधार वे पावहीं, जापर होय श्री वल्लभ कृपा रे ॥२॥

फल फलित होय फलरूप जाने ।
देखिहु ना सुनी ताहि की आपुनी, काहु की बात कहो कैसे जु माने ॥१॥

ताहि के हाथ निर्मोल नग दीजिये, जोई नीके करि परखि जाने ।
सूर कहें क्रूर तें दूर  बसिये सदा, श्री यमुना जी को नाम लीजे जु छाने ॥२॥

भक्त को सुगम श्री यमुने अगम ओरें ।
प्रात ही न्हात अघजात ताकें सकल जमहुं रहत ताहि हाथ जोरे ॥१॥

अनुभवि बिना अनुभव कहा जानही जाको पिया नही चित्त चोरें ।
प्रेम के सिंधु को मरम जान्यो नही सूर कहे कहा भयो देह बोरे ॥२॥

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