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प्रिय तेरी चितवन ही में टोना ।
तन मन धन बिसर्यो जब ही तें, देख्यो स्याम सलोना ॥१॥

ढिंग रहबे कु होत विकल मन, भावत नाहि न मोना ॥
लोग चवाव करत घर घर प्रति, घर रहिये जिय मोना ॥२॥

छूट गई लोक लाज सुत पति की, और कहा अब होना ॥
रसिक प्रीतम की वाणिक निरखत, भूल गई गृह गोना ॥३॥

मेरे तो गिरिधर ही गुणगान।
यह मूरत खेलत नयनन में , यही हृदय में ध्यान ॥१॥

चरण रेणु चाहत मन मेरो, यही दीजिये दान ॥
कृष्ण दास को जीवन गिरिधर मंगल रूप निधान ॥२॥

प्रिय तोहि नयनन ही में राखूं।
तेरी एक रोम की छबि पर जगत वार सब नाखूं ॥१॥

भेटों सकल अंग सांबल कुं, अधर सुधा रस चाखूं ॥
रसिक प्रीतम संगम की बातें, काहू सों नही भाखूं ॥२॥

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